Monday, 2 November 2015

लोग ज़ाहिल ही अच्छे थे










तरकियों के इस दौर में 
तहज़ीब कहीं खो-सी गई है 
ना बुजुर्गों की अज़मत का ख़्याल रहा 
ना हया के पर्दों का सवाल रहा 
ना मोहब्बत का सलीका रहा 
रंग हर शै का आज के दौर के 
इंसान पे फ़ीका रहा 

चार लफ़्ज़ों का इल्म क्या हुआ 
के खुद को समझने लगे इल्मदां 
ना जाने ये कैसी हवा चली है के 
बच्चे नाम लेके पुकारने लगे हैं बुजुर्गों के 

देख के ये सब मंज़र 
दिल कहता है "आकाश"
के घर मिट्टी के ही अच्छे थे 
लोग ज़ाहिल ही अच्छे थे 
कम से कम तहज़ीब तो जिंदा थी 





शायर: "आकाश"





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