Thursday, 31 December 2015

सिगरेट पे सिगरेट पिते जा रहा हूँ










सिगरेट पे सिगरेट पिते जा रहा हूँ 
धुआँ- धुआँ मैं होते जा रहा हूँ 
शाखे-उल्फ़त से टूटा हुआ गुल हूँ मैं 
रफ़्ता -रफ़्ता यारों मुरझाते जा रहा हूँ





शायर: "आकाश"


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Wednesday, 23 December 2015

काश ज़िंदगी भी




Monday, 21 December 2015

जिससे बात करना भी गंवारा नहीं










दिल में शरार लिए फिरते हैं 
माँझी का प्यार लिए फिरते हैं 

इन खुशदिल चेहरों में हम ही 
हसरतें बीमार लिए फिरते हैं 

जिससे बात करना भी गंवारा नहीं, उसी का 
सिने में तलबगार लिए फिरते हैं 

हमदर्दियां दिखाए भी तो कोई कहाँ तलक हम से 
गम ही रायगाँ हज़ार लिए फिरते हैं 

हिज़्र में बुदबुदाने लगे तो जाना, हम तो 
खुद में फनकार लिए फिरते हैं 

दर्दो-गम के सिवा क्या देंगें किसी को 
यही तो बेशुमार लिए फिरते हैं 

और तो सब जायज़ है लेकिन 
दिल शर्मसार लिए फिरते हैं 
शायर: आकाश 
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हिज़्र का शायद उसे मलाल भी नहीं









वो रोकता भी नहीं, टोकता भी नहीं 
मैं तन्हा हूँ कभी सोचता भी नहीं 

हिज़्र का शायद उसे मलाल भी नहीं 
किस्मतों के लिखे को कोसता भी नहीं 

कहाँ जाएंं इस दिल को लेकर, जो तेरे 
दामन-ए-ख्याल को छोड़ता भी नहीं 

ऐसा भी आखिर क्या हुआ है जो 
तू मेरे यार मुझसे बोलता भी नहीं 
शायर: आकाश 
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Thursday, 17 December 2015

अपना तो राज़दाँ कोई नहीं









कहें जिससे दास्ताँ कोई नहीं
अपना तो राज़दाँ कोई नहीं 

ज़िंदगी ये कहाँ ले आई है 
एहबाब भी यहाँ कोई नहीं 

देख लिया भटककर हर जगह 
मिला राहत का समां कोई नहीं

अब तो दिल भी यही चाहे है 
रहें वहाँ हो जहाँ कोई नहीं 

इस दुनिया से निपटने दे अभी 
तुझे भी देख लेंगें आसमां कोई नहीं

शायर: "आकाश "





Monday, 14 December 2015

सुबह इस बात पे मैं बोला था










हुकूमतों की काला बाज़ारियों से 
आम आदमी नंगा हो गया है 
सुबह इस बात पे मैं बोला था 
शाम को दंगा हो गया है। 

इस बार के बज़ट में भी 
सब कुछ ही महंगा हो गया है। 

कौन जिम्मेबार जो देश का 
कुछ हिस्सा भिखमंगा हो गया है। 

छीननी होंगी अब इनसे हुकूमतें 
के देश नंगा हो गया है। 





शायर: आकाश 





Monday, 7 December 2015

तुमसे बिछड़कर हमने खुद को









पाया    कुछ   भी   नहीं   लेकिन   खोया  बहुत  है 
तुमसे  बिछड़कर  हमने  खुद को  कोसा  बहुत  है 

ज़हन से तुम्हारा उतरना अब कहाँ रहा मुमकिन 
तुम्हारे    बारे    में    हमने     सोचा    बहुत    है 

अदालतें    हैं     उसकी      इंसाफ     क्या    होंगें 
हक़    में    फिर    भी   हमने    बोला   बहुत   है 

दिल     तो     करे     है     छोड़     ही    दे    तुम्हें 
हमने     ही     लेकिन    इसे    रोका    बहुत    है 

ये  अलग  बात  के  उससे  इकरार  नहीं   करते 
दुःख  बिछड़ने  का  हमें  भी  यूँ  होता  बहुत  है 


शायर: "आकाश"